जननी को सदा ही मैंने एक बहती धारा ही माना है
पर आज एक अलग से देख रही हूँ ,
न जाने मन में विचार आया क्या वह एक भरा -पूरा कुआँ है ?
जन्म से ही उसे बाँधते जाते हैं रिश्तों में अर्थार्त खोदते ,गहराते और गोला रूपी दायरे में सीमित करते जाते हैं
और वह गहरा जाती है ,जब तक उसमें स्वंय की अनेकानेक धाराएँ न निकलतीं |
एक दिन वह बन जाती है भवनाओं से ओत -प्रोत या लबालब कुआँ जिसका मन जब आये उसे उलीच लो और तृप्त हो लो ,सभी रिश्तों को तृप्त करते हुए वह स्वंय खंगर हो जाती है |
कभी हर आवाज को लौटाती , आज वह अकेली खड़ी ,रीती पड़ी है -
क्या नियति ने उसेसिर्फ तृप्त करने के लिए ही रचा है ?
उसके रीते -अँधेरे मन में झाँकना तो दूर, कोई निकट नहीं जाना चाहता.........
मुझे भी जी लेने दो जरा सा
थोडा सा......
इस नश्वर को प्रवृत्ति ने हाँका अब तक ,
आज से निवृत्ति को हाँकने दो
थोडा सा .......
परिचय होने दो स्वयं से,
पा लेने दो जरा मुझे भी अपने आप को
थोडा सा .......
उफ़न न जाये कहीं मेरे हृदय की वेग धारा,
और शीतल न पड़ न जाये मेरा मन का धरातल
थोडा सा .......
मेरी सोच को विस्तृत होने दो व्योम की तरह ,
निर्भय बन जरा-सा उड़ लूँ पंछी की तरह .......
थोडा सा .......
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